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देवता: अश्विनौ ऋषि: अत्रिः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

सम॒श्विनो॒रव॑सा॒ नूत॑नेन मयो॒भुवा॑ सु॒प्रणी॑ती गमेम। आ नो॑ र॒यिं व॑हत॒मोत वी॒राना विश्वा॑न्यमृता॒ सौभ॑गानि ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sam aśvinor avasā nūtanena mayobhuvā supraṇītī gamema | ā no rayiṁ vahatam ota vīrān ā viśvāny amṛtā saubhagāni ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। अ॒श्विनोः। अव॑सा। नूत॑नेन। म॒यः॒ऽभुवा॑। सु॒ऽप्रनी॑ती। ग॒मे॒म॒। आ। नः॒। र॒यिम्। व॒ह॒त॒म्। आ। उ॒त। वी॒रान्। आ। विश्वा॑नि। अ॒मृ॒ता॒। सौभ॑गानि ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:77» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (अश्विनोः) अग्नि और जल के समीप से (नूतनेन) नवीन (मयोभुवा) सुख के साधक (अवसा) रक्षण आदि और (सुप्रणीती) श्रेष्ठ नीति से (नः) हम अपने लिये (रयिम्) धन को (आ, वहतम्) प्राप्त कराते हुए को और हमारे लिये (वीरान्) शूरता आदि गुणों से युक्त पुरुषों को (उत) और (विश्वानि) संपूर्ण (अमृता) जलों के सदृश सुखकारक (सौभगानि) सुन्दर ऐश्वर्य्यों को प्राप्त कराते हुए को (सम्, आ, गमेम) मिलें, वैसे उनको आप लोग भी (आ) उत्तम प्रकार मिलिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे यथार्थवक्ता जन सब के साथ वर्त्ताव करें, वैसे इन सब लोगों को वर्त्ताव करना चाहिये ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि, जल, विद्वान् और राजा के कृत्य वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सतहत्तरवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा वयमश्विनोर्नूतनेन मयोभुवाऽवसा सुप्रणीती नो रयिमाऽऽवहतं नो वीरानुत विश्वान्यमृता सौभगान्यावहतं समाऽऽगमेम तथैतानि यूयमपि समागच्छध्वम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सम्) एकीभावे (अश्विनोः) अग्न्युदकयोस्सकाशात् (अवसा) रक्षणादिना (नूतनेन) (मयोभुवा) सुखसाधकेन (सुप्रणीती) शोभनया नीत्या (गमेम) प्राप्नुयाम (आ) (नः) अस्मभ्यम् (रयिम्) धनम् (वहतम्) प्रापयन्तम् (आ) (उत) अपि (वीरान्) शौर्यादिगुणोपेतान् (आ) (विश्वानि) सर्वाणि (अमृता) उदकानि सुखकराणि (सौभगानि) शोभनैश्वर्य्याणि ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथाप्ताः सर्वैः सह वर्त्तेरन् तथैतैः सर्वैर्वर्त्तितव्यमिति ॥५॥ अत्राश्विविद्वद्राजकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तसप्ततितमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक सर्वांबरोबर वागतात तसे सर्व लोकांनी वागावे. ॥ ५ ॥